📰 कोचिंग संस्कृति: शिक्षा या शोषण?
लेखक: रवि शंकर गुप्ता (संपादक:N.भारत न्यूज)
कोचिंग सेंटर: सफलता की सीढ़ी या शोषण का जाल?
देश में शिक्षा का मायना अब सिर्फ ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि प्रतियोगिता में टिके रहने की जद्दोजहद बन गया है। इसी दौड़ ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया है — कोचिंग संस्कृति। पहले जो कोचिंग अतिरिक्त मदद मानी जाती थी, वह आज मुख्यधारा बन चुकी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह संस्कृति वास्तव में छात्रों को संवार रही है, या उन्हें मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से तोड़ रही है?
📚 कोचिंग का बढ़ता प्रभाव
हर साल लाखों छात्र IIT, NEET, UPSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण लेते हैं। इन संस्थानों का दावा होता है कि वही सफलता की कुंजी हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा का केंद्र विद्यालय या कॉलेज नहीं, बल्कि ये कोचिंग सेंटर बन गए हैं।
🧠 शिक्षा से अधिक तनाव
छोटे-छोटे बच्चे तक अब कोचिंग क्लासों में दाखिला ले रहे हैं। सुबह स्कूल, दोपहर कोचिंग और रात होमवर्क — जीवन एक मशीन की तरह हो गया है। आत्महत्या की घटनाएँ, विशेषकर कोटा जैसे शहरों से आने वाली खबरें, इस व्यवस्था की भयावहता को उजागर करती हैं।
💸 शोषण का नया मॉडल?
एक औसत कोचिंग संस्थान की फीस ₹1 लाख से ₹3 लाख सालाना तक होती है। इसके अलावा रहने, खाने और यात्रा का खर्च अलग। कई बार मध्यमवर्गीय और गरीब परिवार कर्ज लेकर बच्चों को इन संस्थानों में भेजते हैं। अगर बच्चा सफल नहीं हुआ, तो परिवार पर सामाजिक और आर्थिक दोहरा आघात पड़ता है।
🧑🏫 गुणवत्ता बनाम बाज़ारवाद
अब कोचिंग संस्थान शिक्षा केंद्र नहीं, बल्कि कॉरपोरेट हब बन चुके हैं। मार्केटिंग, फॉर्मूलाबेस्ड पढ़ाई और टॉपर्स के चेहरे की ब्रांडिंग — यही अब इनका चेहरा है। गुणवत्ता की जगह परिणामों की संख्या को प्राथमिकता दी जाती है।
🛤️ क्या है समाधान?
- विद्यालय आधारित शिक्षा प्रणाली को सशक्त करना जरूरी है, ताकि कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जमीनी स्तर पर लागू करना और परीक्षाओं में रट्टा प्रणाली की जगह व्यवहारिक ज्ञान को बढ़ावा देना आवश्यक है।
- मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान, काउंसलिंग और अभिभावकों की भूमिका को समझाना भी ज़रूरी है।
🔍 निष्कर्ष
कोचिंग संस्कृति ने शिक्षा को लक्ष्य केंद्रित तो बना दिया है, लेकिन मानवीय पहलू को कहीं पीछे छोड़ दिया है। शिक्षा वह होनी चाहिए जो सोच विकसित करे, न कि केवल परीक्षा पास कराने का माध्यम बने। सवाल यह नहीं कि कोचिंग जरूरी है या नहीं, सवाल यह है — क्या हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी कमजोर है कि बिना कोचिंग के कोई सपना पूरा नहीं हो सकता?
📰 कोचिंग संस्कृति: शिक्षा या शोषण? कोचिंग सेंटर: सफलता की सीढ़ी या शोषण का जाल? लेखक: रवि शंकर गुप्ता (संपादक:N. भारत न्यूज) जब पढ़ाई लक्ष्य से ज़्यादा बोझ बन जाए — कोचिंग संस्कृति पर फिर से सोचने का समय आ गया है। देश में शिक्षा का मायना अब सिर्फ ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि प्रतियोगिता में टिके रहने की जद्दोजहद बन गया है। इसी दौड़ ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया है — कोचिंग संस्कृति। पहले जो कोचिंग अतिरिक्त मदद मानी जाती थी, वह आज मुख्यधारा बन चुकी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह संस्कृति वास्तव में छात्रों को संवार रही है, या उन्हें मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से तोड़ रही है?
📚 कोचिंग का बढ़ता प्रभाव
हर साल लाखों छात्र IIT, NEET, UPSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण लेते हैं। इन संस्थानों का दावा होता है कि वही सफलता की कुंजी हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा का केंद्र विद्यालय या कॉलेज नहीं, बल्कि ये कोचिंग सेंटर बन गए हैं।
🧠 शिक्षा से अधिक तनाव
छोटे-छोटे बच्चे तक अब कोचिंग क्लासों में दाखिला ले रहे हैं। सुबह स्कूल, दोपहर कोचिंग और रात होमवर्क — जीवन एक मशीन की तरह हो गया है। आत्महत्या की घटनाएँ, विशेषकर कोटा जैसे शहरों से आने वाली खबरें, इस व्यवस्था की भयावहता को उजागर करती हैं।
💸 शोषण का नया मॉडल?
एक औसत कोचिंग संस्थान की फीस ₹1 लाख से ₹3 लाख सालाना तक होती है। इसके अलावा रहने, खाने और यात्रा का खर्च अलग। कई बार मध्यमवर्गीय और गरीब परिवार कर्ज लेकर बच्चों को इन संस्थानों में भेजते हैं। अगर बच्चा सफल नहीं हुआ, तो परिवार पर सामाजिक और आर्थिक दोहरा आघात पड़ता है।
🧑🏫 गुणवत्ता बनाम बाज़ारवाद
अब कोचिंग संस्थान शिक्षा केंद्र नहीं, बल्कि कॉरपोरेट हब बन चुके हैं। मार्केटिंग, फॉर्मूलाबेस्ड पढ़ाई और टॉपर्स के चेहरे की ब्रांडिंग — यही अब इनका चेहरा है। गुणवत्ता की जगह परिणामों की संख्या को प्राथमिकता दी जाती है।
🛤️ क्या है समाधान?
- विद्यालय आधारित शिक्षा प्रणाली को सशक्त करना जरूरी है, ताकि कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जमीनी स्तर पर लागू करना और परीक्षाओं में रट्टा प्रणाली की जगह व्यवहारिक ज्ञान को बढ़ावा देना आवश्यक है।
- मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान, काउंसलिंग और अभिभावकों की भूमिका को समझाना भी ज़रूरी है।
🔍 निष्कर्ष
कोचिंग संस्कृति ने शिक्षा को लक्ष्य केंद्रित तो बना दिया है, लेकिन मानवीय पहलू को कहीं पीछे छोड़ दिया है। शिक्षा वह होनी चाहिए जो सोच विकसित करे, न कि केवल परीक्षा पास कराने का माध्यम बने। सवाल यह नहीं कि कोचिंग जरूरी है या नहीं, सवाल यह है — क्या हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी कमजोर है कि बिना कोचिंग के कोई सपना पूरा नहीं हो सकता? संपादक:रविशंकर गुप्ता
📰 कोचिंग संस्कृति: शिक्षा या शोषण? कोचिंग सेंटर: सफलता की सीढ़ी या शोषण का जाल? लेखक: रवि शंकर गुप्ता (संपादक:N. भारत न्यूज) जब पढ़ाई लक्ष्य से ज़्यादा बोझ बन जाए — कोचिंग संस्कृति पर फिर से सोचने का समय आ गया है। देश में शिक्षा का मायना अब सिर्फ ज्ञान अर्जन नहीं, बल्कि प्रतियोगिता में टिके रहने की जद्दोजहद बन गया है। इसी दौड़ ने एक नई व्यवस्था को जन्म दिया है — कोचिंग संस्कृति। पहले जो कोचिंग अतिरिक्त मदद मानी जाती थी, वह आज मुख्यधारा बन चुकी है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह संस्कृति वास्तव में छात्रों को संवार रही है, या उन्हें मानसिक, आर्थिक और सामाजिक रूप से तोड़ रही है?
📚 कोचिंग का बढ़ता प्रभाव
हर साल लाखों छात्र IIT, NEET, UPSC जैसी परीक्षाओं की तैयारी के लिए कोचिंग संस्थानों की शरण लेते हैं। इन संस्थानों का दावा होता है कि वही सफलता की कुंजी हैं। परिणामस्वरूप, शिक्षा का केंद्र विद्यालय या कॉलेज नहीं, बल्कि ये कोचिंग सेंटर बन गए हैं।
🧠 शिक्षा से अधिक तनाव
छोटे-छोटे बच्चे तक अब कोचिंग क्लासों में दाखिला ले रहे हैं। सुबह स्कूल, दोपहर कोचिंग और रात होमवर्क — जीवन एक मशीन की तरह हो गया है। आत्महत्या की घटनाएँ, विशेषकर कोटा जैसे शहरों से आने वाली खबरें, इस व्यवस्था की भयावहता को उजागर करती हैं।
💸 शोषण का नया मॉडल?
एक औसत कोचिंग संस्थान की फीस ₹1 लाख से ₹3 लाख सालाना तक होती है। इसके अलावा रहने, खाने और यात्रा का खर्च अलग। कई बार मध्यमवर्गीय और गरीब परिवार कर्ज लेकर बच्चों को इन संस्थानों में भेजते हैं। अगर बच्चा सफल नहीं हुआ, तो परिवार पर सामाजिक और आर्थिक दोहरा आघात पड़ता है।
🧑🏫 गुणवत्ता बनाम बाज़ारवाद
अब कोचिंग संस्थान शिक्षा केंद्र नहीं, बल्कि कॉरपोरेट हब बन चुके हैं। मार्केटिंग, फॉर्मूलाबेस्ड पढ़ाई और टॉपर्स के चेहरे की ब्रांडिंग — यही अब इनका चेहरा है। गुणवत्ता की जगह परिणामों की संख्या को प्राथमिकता दी जाती है।
🛤️ क्या है समाधान?
- विद्यालय आधारित शिक्षा प्रणाली को सशक्त करना जरूरी है, ताकि कोचिंग की आवश्यकता ही न पड़े।
- राष्ट्रीय शिक्षा नीति को जमीनी स्तर पर लागू करना और परीक्षाओं में रट्टा प्रणाली की जगह व्यवहारिक ज्ञान को बढ़ावा देना आवश्यक है।
- मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान, काउंसलिंग और अभिभावकों की भूमिका को समझाना भी ज़रूरी है।
🔍 निष्कर्ष
कोचिंग संस्कृति ने शिक्षा को लक्ष्य केंद्रित तो बना दिया है, लेकिन मानवीय पहलू को कहीं पीछे छोड़ दिया है। शिक्षा वह होनी चाहिए जो सोच विकसित करे, न कि केवल परीक्षा पास कराने का माध्यम बने। सवाल यह नहीं कि कोचिंग जरूरी है या नहीं, सवाल यह है — क्या हमारी शिक्षा प्रणाली इतनी कमजोर है कि बिना कोचिंग के कोई सपना पूरा नहीं हो सकता? संपादक:रविशंकर गुप्ता
