“स्क्रीन के पीछे छिपा जहर — बच्चों के मन में घुलती अश्लीलता”
संपादक: रवि शंकर गुप्ता
21वीं सदी का भारत जहां डिजिटल क्रांति में गर्व कर रहा है, वहीं उसका बचपन मोबाइल की स्क्रीन पर अश्लीलता की गिरफ्त में छटपटा रहा है। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर तेजी से बढ़ रही भड़काऊ सामग्री, अश्लील विज्ञापन और अनुचित कंटेंट अब केवल “वयस्कों के मनोरंजन” तक सीमित नहीं रहा, बल्कि यह बच्चों और किशोरों के दिमाग में ज़हर घोल रहा है।
10 से 16 वर्ष तक के बच्चे, जो कभी राष्ट्र के भविष्य कहे जाते थे, अब इंस्टाग्राम रील्स, यूट्यूब शॉर्ट्स और टिकटॉक जैसे ऐप्स के माध्यम से ऐसे दृश्य देख रहे हैं जो न तो उनके मानसिक विकास के अनुकूल हैं, न ही समाज के लिए स्वस्थ।
अश्लीलता के जाल में उलझा बचपन – कौन ज़िम्मेदार?
- सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स: व्यूज़ और विज्ञापन के पैसे कमाने की होड़ में नियमों को ताक पर रखा जा रहा है।
- कंटेंट क्रिएटर्स: वायरल होने के लिए भाषा, कपड़े और नैतिकता सबकुछ गिरवी रख चुके हैं।
- अभिभावकों की लापरवाही: मोबाइल दे दिया, पर मार्गदर्शन देना भूल गए।
- सरकारी उदासीनता: डिजिटल स्पेस में बच्चों की सुरक्षा पर कोई ठोस नीति नहीं।
नतीजा?
- समय से पहले मानसिक परिपक्वता, जो भ्रम पैदा करती है
- यौन जिज्ञासा में वृद्धि, जिससे व्यवहार में बदलाव और जोखिम
- पढ़ाई में गिरावट और चरित्र निर्माण में असफलता
- अवसाद, आत्मग्लानि और समाज से कटाव
समाधान की दिशा में जरूरी कदम
- डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर बच्चों के लिए ‘क्लीन ज़ोन’ अनिवार्य किया जाए।
- हर स्कूल में डिजिटल नैतिकता और मीडिया साक्षरता पढ़ाई जाए।
- सरकार द्वारा सोशल मीडिया निगरानी प्राधिकरण की स्थापना हो।
- पैरेंटल कंट्रोल ऐप्स को जनजागरूकता के ज़रिए व्यापक रूप से अपनाया जाए।
- कंटेंट क्रिएटर्स को जिम्मेदार बनाने के लिए कानूनी दायरे में लाया जाए।
“अगर बच्चों के हाथ में मोबाइल है, तो ज़िम्मेदारी हमारे हाथों में होनी चाहिए।” अश्लीलता से लिपटा हुआ मनोरंजन नहीं, सच्ची शिक्षा और संस्कार ही भारत को डिजिटल नहीं, संस्कारी महाशक्ति बना सकते हैं।
संपादक: रविशंकर गुप्ता
