संपादकीय विशेष
जब बचपन नशे में खो जाए: समाज की चुप्पी और हमारी जिम्मेदारी
लेखक – [रवि शंकर गुप्ता]
देश की सड़कों, चौराहों और गली-कूचों में अक्सर ऐसे बच्चे दिख जाते हैं जो कबाड़ बीनते, पंचर बनाते या भीख माँगते हुए दिखाई देते हैं। पहली नजर में ये केवल मजदूरी करने वाले गरीब बच्चे लगते हैं, लेकिन अगर हम थोड़ी गहराई से देखें तो सच्चाई कहीं अधिक भयावह होती है। इन बच्चों की जिंदगी में मेहनत कम और नशा अधिक जगह ले चुका है। उम्र तो है सिर्फ़ 8 से 14 के बीच, लेकिन आँखों में धुँध है – नशे की धुँध।
एक खोता हुआ बचपन
भारत सरकार और कई सामाजिक संगठनों ने बाल अधिकारों की रक्षा के लिए तमाम योजनाएँ चला रखी हैं, लेकिन धरातल पर हालात कुछ और ही बयां करते हैं। इन नौनिहालों का बचपन गरीबी, उपेक्षा, शिक्षा के अभाव और सामाजिक तिरस्कार की भेंट चढ़ चुका है। नतीजा ये कि ये बच्चे व्हाइटनर, सलूशन, कफ सिरप और अन्य सस्ते नशीले पदार्थों के आदी हो जाते हैं। इसके बाद शुरू होता है अपराध का रास्ता – छोटी मोटी चोरी, झगड़े, मारपीट और फिर कभी-कभी बड़ा अपराध।
प्रमुख कारण:
- घोर गरीबी और आर्थिक असुरक्षा:
जिन बच्चों के परिवार दिन-भर की मजदूरी में भी पेट नहीं भर पाते, उनके लिए शिक्षा और देखभाल की बात करना ही बेमानी हो जाता है। - टूटे या उपेक्षित परिवार:
पिता शराबी, माँ घरेलू नौकरानी, या फिर माता-पिता दोनों ही नहीं। ऐसा वातावरण बच्चों को जल्दी भटका देता है। - सस्ती नशीली चीज़ों की उपलब्धता:
बाजार में व्हाइटनर, थिनर, नेल पॉलिश रिमूवर, सलूशन आदि सस्ते और बिना किसी निगरानी के उपलब्ध हैं। दुकानदार भी इन्हें बेचते समय बच्चों की उम्र पर ध्यान नहीं देते। - समाज और कानून की लापरवाही:
नशा करने वाले बच्चों को अक्सर अपराधी समझ कर पुलिस थाने भेज दिया जाता है, जबकि ज़रूरत उन्हें सुधारगृह या पुनर्वास की होती है।
भविष्य की भयावह तस्वीर
अगर समय रहते इन बच्चों को रोका नहीं गया, तो आने वाले समय में यही पीढ़ी नशेड़ी, अपराधी या मानसिक रोगी बन जाएगी। इनका जीवन तो बर्बाद होगा ही, समाज भी हिंसा और अपराध के दलदल में गहराता जाएगा।
हमारी भूमिका:
अब सवाल यह है कि क्या हम केवल देखते रहें या कुछ करें? जवाब साफ़ है – कुछ करना होगा।
1. व्यक्तिगत स्तर पर:
- जब आप किसी नशा करते बच्चे को देखें, तो उस पर चिल्लाने के बजाय बात करें। उससे पूछें कि उसे ये आदत कैसे लगी, उसे क्या चाहिए।
- पास के किसी NGO या चाइल्ड हेल्पलाइन (1098) को तुरंत सूचित करें।
- बच्चों को झाड़ने या भगाने की बजाय उन्हें सहारा देने की कोशिश करें।
2. सामुदायिक स्तर पर:
- मोहल्ले, सोसायटी, पंचायतों में मीटिंग कर इस विषय पर बातचीत होनी चाहिए।
- पंचायतों को बाल संरक्षण की भूमिका में सक्रिय किया जाना चाहिए।
3. शैक्षिक और सरकारी पहल:
- स्कूलों और आंगनवाड़ियों में ऐसे बच्चों की पहचान कर उनके लिए विशेष शिक्षा और पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जाएं।
- सरकार को सस्ती नशीली चीज़ों की बिक्री पर सख्ती से रोक लगानी चाहिए।
- बाल न्याय प्रणाली को मानवीय और पुनर्वास आधारित बनाया जाना चाहिए।
4. मीडिया और लेखन की ताकत:
- पत्रकार, लेखक और फिल्मकार इस विषय पर लिखें, दिखाएँ और समाज को जागरूक करें।
- सोशल मीडिया का प्रयोग कर जनजागरूकता फैलाई जाए। उदाहरण और प्रेरणात्मक कहानियाँ साझा की जाएँ।
सकारात्मक उदाहरणों की ज़रूरत
ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ NGOs की मदद से बच्चे नशे की लत से बाहर निकलकर पढ़ाई में लौटे और अब एक सम्मानजनक जीवन जी रहे हैं। इन कहानियों को फैलाना ज़रूरी है ताकि और बच्चे और उनके परिवार हिम्मत बटोर सकें।
निष्कर्ष: बचपन की रक्षा = राष्ट्र की रक्षा
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जो देश अपने बच्चों को नहीं बचा सकता, वह अपने भविष्य को नहीं बचा सकता। बाल नशा एक सामाजिक संकट है – और इसका समाधान भी समाज से ही निकलेगा। यह लड़ाई सिर्फ पुलिस, अदालत या NGOs की नहीं है – यह हम सबकी है।
आज यदि हमने आँखें मूँद लीं, तो कल पूरा समाज आँसू बहाएगा।
अब वक़्त है जागने का, कुछ करने का – क्योंकि बचपन को बचाना, सिर्फ एक कर्तव्य नहीं, हमारा धर्म है।
