संपादकीय विशेष: अपराध की जड़ में झांकने की ज़रूरत—क्या “काउंसलिंग” बन सकती है सुधार की नई राह?
रवि शंकर गुप्ता, संपादक | N. भारत न्यूज | जनहित में विशेष प्रस्तुति
दिनांक: 20 मई 2025
आज का समाज एक ऐसे दौर से गुजर रहा है जहां छोटी-छोटी बातों पर हिंसा, विवाद और यहां तक कि हत्या जैसी घटनाएं आम होती जा रही हैं। सहनशीलता का स्तर गिरता जा रहा है और यह गिरावट केवल वयस्कों तक सीमित नहीं है, बल्कि अब किशोर और बच्चे भी इस प्रवृत्ति की चपेट में आ चुके हैं।
प्रश्न उठता है—क्या यह केवल कानून और व्यवस्था की समस्या है या सामाजिक ढांचे में कोई गहरी खामी है?
असहिष्णुता और नशे की गिरफ्त—जड़ में छिपी बीमारी
बढ़ती प्रतिस्पर्धा, पारिवारिक विघटन, सामाजिक अलगाव और आभासी दुनिया की अपेक्षाएं आज के युवाओं को मानसिक रूप से अस्थिर बना रही हैं। इस असंतुलन के चलते वे या तो नशे की लत में फंसते हैं या फिर अपराध की ओर मुड़ते हैं। विशेषकर ड्रग्स, शराब और तंबाकू जैसे नशे कम उम्र में ही उनके भविष्य को अंधकारमय बना देते हैं।
पुलिस की भूमिका—ज़रूरी पर अधूरी
पुलिस व्यवस्था कानून के तहत अपराध दर्ज करती है, गिरफ्तारी करती है और न्यायालय के आदेशानुसार आगे की कार्रवाई करती है। लेकिन क्या इससे समाज में अपराध घटता है? वास्तविकता यह है कि कई बार पहली बार अपराध करने वाला व्यक्ति जेल जाकर और अधिक खतरनाक अपराधों की ओर प्रवृत्त हो जाता है। जेलें सुधारगृह नहीं, बल्कि अपराध की पाठशाला बनती जा रही हैं।
काउंसलिंग—दंड नहीं, दिशा का माध्यम
समस्या के समाधान के लिए आवश्यक है कि हम सुधारवादी दृष्टिकोण अपनाएं।
प्रस्ताव है कि—हर थाना स्तर पर एक प्रशिक्षित काउंसलर की नियुक्ति की जाए, जो पहली बार अपराध करने वाले युवाओं और किशोरों की काउंसलिंग कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में लौटने का अवसर दे।
यह व्यवस्था क्या कर सकती है?
मामूली अपराधों में लिप्त युवाओं को सुधारने का अवसर।
उनके व्यवहार, मानसिक स्थिति और पारिवारिक पृष्ठभूमि को समझना।
परिवार को साथ लेकर सुधार की प्रक्रिया को सामाजिक समर्थन देना।
पुलिस और प्रशासन की निगरानी में सुधार कार्यक्रम चलाना।
लाभ अनेक हैं:
1. अपराध दर में गिरावट।
2. थानों और जेलों पर बोझ कम।
3. समाज में विश्वास और सहयोग की भावना का संचार।
4. युवाओं को अपराधी बनने से रोकने का व्यावहारिक उपाय।
निगरानी जरूरी, ताकि सुरक्षा व्यवस्था न हो प्रभावित
काउंसलिंग के बाद भी संबंधित व्यक्ति पर निगरानी बनी रहे, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। सुधार का अवसर देना अपराध को नजरअंदाज करना नहीं है, बल्कि यह एक जिम्मेदार समाज की पहचान है जो सुधार और सुरक्षा के बीच संतुलन बनाना जानता है।
निष्कर्ष:
देश को केवल कानून नहीं, संवेदनशील समाजशास्त्र की आवश्यकता है। हर युवा अपराधी नहीं होता, कई बार वह केवल भटका हुआ होता है। यदि उसे समय रहते सही दिशा दी जाए, तो वह समाज का उपयोगी सदस्य बन सकता है।
हर थाना यदि केवल एक प्रशिक्षित काउंसलर रख ले, तो न केवल अपराध रोका जा सकता है बल्कि अनेक जीवन भी बचाए जा सकते हैं। यह पहल समाज, सरकार और पुलिस—तीनों के साझा प्रयास से संभव है।
कानून व्यवस्था को मानवीय दृष्टिकोण के साथ जोड़ना समय की मांग है।
—
संपादक: रवि शंकर गुप्ता
N. भारत न्यूज | जनहित के लिए समर्पित
