सम्पादकीय
✍️ संपादक – रविशंकर गुप्ता, N भारत न्यूज
आज समाज के हर कोने से अपराध की खबरें सुनाई दे रही हैं। कभी किसी ने मामूली विवाद में हत्या कर दी, तो कहीं पड़ोसियों के बीच कहासुनी ने खूनी रूप ले लिया। सड़क पर मामूली ओवरटेकिंग हो या घर के भीतर पारिवारिक झगड़ा — हर जगह लोग आपा खो देते हैं। ऐसा लगता है जैसे लोगों के भीतर बर्दाश्त करने की क्षमता धीरे-धीरे खत्म होती जा रही है।
यह स्थिति केवल कानून-व्यवस्था की समस्या नहीं है, बल्कि यह समाज के मानसिक असंतुलन और तनावग्रस्त जीवनशैली का भी परिणाम है। आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में हर व्यक्ति तनाव, असुरक्षा और असंतोष से जूझ रहा है। सोशल मीडिया ने जहां संवाद के अवसर बढ़ाए हैं, वहीं गुस्सा और आक्रोश के प्रदर्शन को भी आसान बना दिया है। छोटी-सी बात अब झगड़े और अपराध में बदल जाती है।
हर थाने में काउंसलर की जरूरत क्यों
हमारा पुलिस तंत्र अपराध होने के बाद सक्रिय होता है, लेकिन जरूरत इस बात की है कि अपराध को होने से पहले रोका जाए। इसके लिए हर थाने में एक काउंसलर (मनोवैज्ञानिक सलाहकार) की नियुक्ति की जानी चाहिए।
काउंसलर का काम केवल अपराधी से पूछताछ करना नहीं, बल्कि उस व्यक्ति के मानसिक और सामाजिक कारणों को समझना होगा जो उसे अपराध की ओर ले जा रहे हैं।
कई बार घरेलू विवाद, प्रेम संबंधों में तनाव, पारिवारिक कलह या बेरोजगारी जैसी वजहें किसी व्यक्ति को हिंसा की राह पर ले जाती हैं। ऐसे मामलों में अगर प्रारंभिक स्तर पर सही काउंसलिंग की जाए, तो अपराध को रोका जा सकता है।
पुलिस और समाज के बीच विश्वास की कड़ी बने काउंसलर
थाने में काउंसलिंग की व्यवस्था पुलिस और आम नागरिकों के बीच विश्वास की एक नई दीवार खड़ी करेगी। आज भी बहुत से लोग थाने जाने से डरते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वहां उन्हें केवल अपराधी की तरह देखा जाएगा। लेकिन यदि पुलिस थानों में एक प्रशिक्षित काउंसलर मौजूद रहे, जो विवादित पक्षों को बैठाकर समझाए, समाधान सुझाए और उनका गुस्सा कम करे, तो कई घटनाएं वहीं समाप्त हो सकती हैं — बिना किसी एफआईआर या गिरफ्तारी के।
काउंसलिंग पुलिसिंग बने नई पहल
सरकार को चाहिए कि “काउंसलिंग पुलिसिंग” को एक नई पहल के रूप में अपनाए।
- हर थाने में एक मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षित काउंसलर की नियुक्ति हो।
- स्थानीय स्तर पर पंचायतों और मोहल्लों में जागरूकता अभियान चलाए जाएं कि झगड़े का हल हिंसा नहीं, संवाद है।
- युवाओं और विद्यार्थियों में मानसिक संतुलन बनाए रखने के लिए स्कूल-कॉलेजों में “इमोशनल एजुकेशन” पर ध्यान दिया जाए।
समाज को बदलना होगा सोच
सिर्फ सरकार या पुलिस नहीं, हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी। हमें सीखना होगा कि हर बात पर प्रतिक्रिया देना जरूरी नहीं, हर बहस में जीतना आवश्यक नहीं। एक कदम पीछे हट जाना कभी-कभी पूरे समाज को एक अपराध से बचा सकता है।
निष्कर्ष:
अपराध को सिर्फ सख्त कानून से नहीं, बल्कि संवेदनशील समाज और मानसिक रूप से संतुलित नागरिकों से रोका जा सकता है।
अब वक्त आ गया है कि हम “सज़ा देने वाली पुलिसिंग” से आगे बढ़कर “समझाने वाली पुलिसिंग” की ओर कदम बढ़ाएँ।
✍️ रविशंकर गुप्ता
संपादक – N भारत न्यूज
